एक बार स्वामी विवेकानन्द रेल में यात्रा कर रहे थे. एक भिखारी ने अपनी गरीबी का हवाला देते हुए उनसे भीख मांगी. पहले स्वामीजी ने कुछ जबाब नहीं दिया , फिर दूसरी बार भिखारी ने कहा, ‘‘श्रीमान्, मैं बहुत गरीब हूं, मेरे पास कुछ भी नहीं है, मुझ पर दया करो.’’
उसके दुबारा भीख मांगने पर स्वामी जी के आंखों से आंसू टपकने लगे. तपाक से सहयात्री ने पूछा, ‘‘श्रीमान्, क्या बात है ?’’
विवकेकानन्द ने कहा, ‘‘इस अमीर आदमी द्वारा दयनीय जीवन जीने एवं भीख मांगने के कारण मुझे कष्ट हुआ.’’
इस पर सहयात्री ने कहा, ‘‘अरे, यह तो भिखमंगा है. आप इसे अमीर कैसे कह रहे हैं ?’’
तब स्वामीजी ने भिखारी से पूछा, ‘‘क्या आप मुझे अपना बांया हाथ एक लाख रुपयों में बेचोगे ? मैं खरीदना चाहता हूं, रुपये अभी दूंगा.’’ भिखारी ने मना कर दिया.
‘‘क्या दांया हाथ एक लाख में दोगे ?’’ ‘‘नहीं!’’‘‘क्या बांया पांव एक लाख में दोगे ?’’ ‘‘नहीं!’’‘‘दूसरा पांव दो लाख में दोगे ?’’ ‘‘नहीं, यह बेचने के लिये नहीं है.’’
‘‘क्या एक आंख दो लाख में दोगे ?’’ यहां पर भी उत्तर नकारात्मक ही था.‘‘दूसरी आंख के पांच लाख दूंगा’’
‘‘नहीं, मैं इन्हें कैसे बेच सकता हूं?’’
इस पर स्वामीजी बोले, ‘‘बेच तो नहीं सकते, लेकिन इनका उपयोग भीख मांगने के लिये करते हो. इतना सब कुछ होते हुए भी क्या तुम अब भी गरीब हो ? क्या तुम्हारे पास कुछ नहीं है ?
जिसके पास इतना कीमती मानव शरीर है उसे आप क्या कहेंगे ? भिखारी लज्जित होकर चला गया .
हम अक्सर भूल जाते हैं कि हमारे पास बहुत कुछ है, पर हम हमेशा जो नहीं है उसी की चिन्ता में दुखी रहते हैं.जीवन में बाधाएं तो अक्सर आती हैं. परन्तु विजेता वही बनता है जो स्वयं का सही मूल्यांकन कर सकता हो.
No comments:
Post a Comment